रानी अवंती बाई लोधी जी की जीवनी: 1857 की पहली महिला वीरांगना की प्रेरक गाथा

परिचय

वीरांगना रानी अवंती बाई लोधी जी भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली प्रथम महिला वीरांगना थीं। मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देकर वे भारतीय इतिहास में अमर हो गईं। साहस, नेतृत्व, स्वाभिमान और मातृभक्ति की प्रतीक रानी अवंती बाई लोधी जी को आज भी श्रद्धा और सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है।

प्रारंभिक जीवन

रानी अवंती बाई लोधी जी का जन्म 16 अगस्त 1831 को ग्राम मनकेहणी, जिला सिवनी (मध्यप्रदेश) में हुआ था। उनके पिता राव जुझार सिंह जी एक प्रतिष्ठित ज़मींदार थे और माता का नाम कृष्णा बाई जी था।
बचपन से ही रानी जी में वीरता और साहस की भावना कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने घुड़सवारी, शस्त्र संचालन और तलवारबाज़ी में विशेष दक्षता प्राप्त की थी।

विवाह एवं राज्य कार्य

रानी अवंती बाई जी का विवाह रामगढ़ रियासत के युवराज विक्रमादित्य सिंह जी से हुआ। विक्रमादित्य सिंह जी के अस्वस्थ हो जाने पर राज्य का दायित्व रानी अवंती बाई लोधी जी ने कुशलता से संभाला। उनके दो पुत्र – अमान सिंह जी और शेर सिंह जी थे। रानी जी ने राज्य का संचालन न केवल दृढ़ता से किया बल्कि कृषकों और आम जनता के कल्याण हेतु कई सुधार भी किए।

ब्रिटिश हड़प नीति और संघर्ष का आरंभ

ब्रिटिश गवर्नर जनरल डलहौज़ी की “हड़प नीति” के अंतर्गत विक्रमादित्य सिंह जी को अयोग्य और उनके पुत्रों को नाबालिग घोषित कर रामगढ़ रियासत को “कोर्ट ऑफ वार्ड्स” के अधीन कर दिया गया। इसके पश्चात अंग्रेज अधिकारियों – शेख मोहम्मद और मोहम्मद अब्दुल्ला – को राज्य का नियंत्रण सौंपा गया।
रानी अवंती बाई लोधी जी ने इन अधिकारियों को राज्य से बाहर कर दिया और स्वराज्य की घोषणा करते हुए शासन का संचालन स्वयं करने लगीं।

जन-जागरण और क्रांति की तैयारी

रानी अवंती बाई लोधी जी ने 1857 की क्रांति की ज्वाला को मध्यप्रदेश में प्रज्वलित किया। उन्होंने आसपास के राजाओं, परगनादारों, ज़मींदारों और मालगुजारों को एकजुट कर एक पत्र भेजा जिसमें लिखा था:
“अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार हो जाइए या चूड़ियाँ पहनकर घर बैठ जाइए।”
इस पत्र के साथ एक पुड़िया में दो काली चूड़ियाँ भेजी जाती थीं, जो सम्मान और क्रांति का प्रतीक बन गईं।

रामगढ़ सम्मेलन और क्रांति की शुरुआत

मई 1857 में रानी जी ने रामगढ़ में एक क्षेत्रीय सम्मेलन का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता गढ़पुरवा के राजा शंकरशाह जी ने की। इसमें विद्रोह की योजना तैयार की गई।
रानी जी ने अपनी सेना के साथ गुजरी, बिछिया और रामनगर जैसे क्षेत्रों को अंग्रेजों से मुक्त कराया और जनता का समर्थन प्राप्त किया।

खैरी युद्ध (23 नवम्बर 1857)

रानी अवंती बाई लोधी जी ने अंग्रेजों से प्रथम बड़ी मुठभेड़ खैरी गांव के पास की, जहाँ उन्होंने मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंग्टन की सेना को पराजित कर दिया। यह युद्ध उनकी रणनीतिक क्षमता और युद्ध कौशल का साक्षात उदाहरण था।

देवहारीगढ़ का अंतिम संग्राम और बलिदान (20 मार्च 1858)

अंग्रेजों ने जब भारी सैन्यबल के साथ रामगढ़ पर आक्रमण किया तो रानी जी ने आत्मसमर्पण करने के बजाय लड़ने का निर्णय लिया।
20 मार्च 1858 को देवहारीगढ़ के युद्धभूमि में रानी जी ने वीरता से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी।

बलिदान से पूर्व उन्होंने अंग्रेजी शासन को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कहा –
“ग्रामीण जनता बिल्कुल निर्दोष है, इस विद्रोह के लिए मैंने उन्हें प्रेरित किया।”
इस पत्र के माध्यम से उन्होंने हजारों निर्दोष लोगों को अंग्रेजों के दमन से बचा लिया।

सम्मान और स्मृति

  • भारत सरकार ने रानी जी के सम्मान में 1986 और 2001 में डाक टिकट जारी किए।
  • नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण द्वारा जबलपुर स्थित बर्गी बांध परियोजना का एक हिस्सा रानी जी के नाम पर रखा गया है।
  • अनेक विद्यालय, संस्थान और स्मारक रानी अवंती बाई लोधी जी की वीरता की गाथा को आज भी जीवित रखते हैं।

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